प्रकीर्ण

 

 ' क ' से कहा जा सकता है कि प्रणाम के लिए न आने के उसके कारण छिछले और उथले हैं, अन्य लोग हैं जो साधना में उससे बहुत ज्यादा आगे बढ़े हुए हैं, और वे आते हैं । उनके बारे में क्या कहेगा वह ?

 

     वह हमेशा यह सिद्ध करने की कोशिश करता हे कि वह अन्य साधकों सें श्रेष्ठ है । यही उसकी भूल- भ्रांति की जड़ हैं ।

 

मई, १९३२

 

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 मैं तुम्हारे निश्चय से खुश हूं और आशा करती हूं कि तुम उसे निभाओगे । मैं तुम्हें लिखने वाली थी कि तुम्हें मुझसे मिलने और पीने में चुनाव करना होगा-क्योंकि अगर तुम पीते ही रहोगे तो मैं तुमसे नहीं मिलूंगी-लेकिन यह जानकर खुश हूं कि तुमने पहले ही निश्चय कर लिया है ।

 

११ अक्तूबर, १९३५

 

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ऐसा लगता कि प्रकाश आनंद ज्ञान शक्ति का बड़ा भण्डार मेरे अन्दर उतरनें के सिर के कर्पूर? यह विचार आ रहा कि काल के रखना , के साध मिलना- जुलना या बातचीत 'और तथा प्रणाम के छोड़कर अपने घर या कमरे से बाहर न निकलना चाहिये !

 

 श्रीअरविन्द कहते हैं कि तुम्हें किसी भी कारण से हर रोज शाम के ध्यान में आना बंद न करना चाहिये । मैं उनके साथ पूरी तरह सहमत हूं कि यह उपस्थिति एकदम अनिवार्य है ।

 

१६ दिसम्बर १९४०

 

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मिथ्याभिमान और स्वार्थपरता ही साधकों को शिक्षा को अच्छे भाव से लेने से रोकते हैं ।

 

१० मई, १९४४

 

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 इस कमरे में बिलकुल चुप रहना होगा ।

 

    जो श्रीअरविन्द की उपस्थिति मै एक शब्द भी बोलेगा उसे कमरा छोड़ कर बाहर निकल जाना होगा ।

 

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 इस स्थान से सेवा की भावना चली गयी है ।

 

१६ मई, १९५४

 

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 यहां ऐसा कोई भी नहीं हे, अच्छे-से- अच्छों में भी नहीं, जो अनंतिम विजय पाने के लिए अपनी सभी आदतें, सुविधाएं और अभिरुचिया या पसंदों छोड़ने को तैयार हो, भले मार्ग मे उसे अपनी गर्दन ही तोड़नी पड जाये ।

 

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 तुम्हारा मनोभाव बदलना चाहिये-क्योंकि कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है, सब कुछ भगवान् का है और आवश्यकता हो तो संग्रहक उपयोग के लिए है - और इसके ठोस उदाहरण के रूप में मैं तुमसे अपना वर्तमान निवास- स्थान छोड्कर नये मकान में जाने के लिए कहूंगी जहां तुम्है रहने की जगह दी गयी हैं । मैं तुम्हें इस फ़ैसले को ' कृपा ' की अभिव्यक्ति के रूप में लेने की सलाह दूंगी ।

 

१६ अप्रैल १९५८

 

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     ' क ' कहता ने कि वह किसी को नहीं जानता जो यह काम कर

 

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     सके ! वह करने वालों के पास यह सूचना भेज चाहता कि प्रदर्शनी नहीं होगा !

 

 मुझे इसके लिए बहुत खेद हैं ।

 

  यह परिस्थितियों की अपेक्षा, कही अधिक संकल्प की पराजय हे ओर आश्रम के लिए बदनामी की बात है ।

 

१४ फरवरी, १९६३

 

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    (अम्बालाल के बारे में जो के शिष्य थे ११ दिसम्बर, १९६५ को छोड़ गये )

 

 पुराणी

 

उसका उच्चतर बौद्धिक भाग श्रीअरविन्द के पास चला गया और उनमें मिल गया ।

 

    उसका चैत्य मेरे साथ है, और वह बहुत प्रसन्न और शांत है ।

 

    उसका प्राण अब भी उन लोगों की सहायता कर रहा है जो उसकी सहायता चाहते हैं ।

 

५ मार्च, ११६१

 

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     (पवित्र के बारे में जो एक फ्रेंच शिष्य थे जिन्होने १६, १९६१ को शरीर छोड़ा )

 

 उस रात मुझे जो अनुभूति हुई वह बहुत रोचक थी । मेरे जीवन मे ऐसा कभी नहीं हुआ था । यह उस दिन से पहले की रात घी जब उसने शरीर छोड़ा था । नौ बजे थे । मैंने अनुभव किया कि वह अपने को विलग कर रहा है, एक असाधारण तरीके से पीछे हट रहा हैं । वह अपने- आपसे बाहर निकलकर, अपने को समेट कर मेरे अंदर उंडेल रहा था । वह

 

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सचेतन रूप से और सोच-समझ कर केंद्रित संकल्प की पूरी शक्ति के साथ बाहर आ रहा था । वह बिना रुके, अनवरत घंटों यह करता रहा । यह काम लगभग एक बजे खतम हुआ । मैंने घड़ी देखी थी ।

 

     किसी भी समय कोई ढील या व्याघात या विराम न था । सारे समय बिना रुके, शक्ति में जस भी कमी आये बिना, एकसां स्थिर सतत प्रवाह रहा । जस भी कम न होने वाली कितनी केंद्रित धारा थी वह । जब तक वह पूरी तरह मेरे अंदर समा नहीं गया तब तक वह क्रिया चलती रही मानों वह अपने शरीर की अंतिम बूंद तक को दे देना चाहता था । मैं कहती हूं यह अद्भुत था-मैंने ऐसी चीज का कभी अनुभव न किया था । जब प्रवाह बंद हुआ तो शरीर में बहुत ही कम रह गया था : डाक्टरों दुरा शरीर को मृत घोषित कर देने के बहुत बाद तक मैंने शरीर को बहुत देर तक, उतनी देर तक रहने दिया जितनी देर तक काम जारी रहने के लिए जरूरी था ।

 

    वह जीवन मे जैसा था, उस हिसाब से वह यह न कर सकता था, मैंने उससे इसकी आशा नहीं की थी । शायद उसका कोई पूर्वजन्म क्रियाशील था और वह यह कर पाया । अधिकतर योगी, बडी-सेबडी योगी भी ऐसा न कर पाते । वह यहां मेरे अन्दर है, पूरी तरह जाग्रत् और तुम लोग जो कर रहे हो उसे विनोद की दृष्टि से देख रहा है । वह मेरे अन्दर पूरी तरह मिल गया हैं यानी वह मेरे अन्दर निवास करता है, विलीन नहीं हुआ हैं : उसका व्यक्तित्व अक्षुण्ण है । अमृत उससे भिन्न हैं । वह बाहर है, तुममें से एक, तुम घूमने-फिरने वालों में से एक है । हां, कभी जब वह आराम करना, विश्राम लेना चाहता हैं, तो वह आता है और यहां निवास करता हैं । एक विलक्षण कहानी है यह । पवित्र ने बहुत बड़ा और दु :साध्य काम किया है ।

 

२५ मई, १९३९

 

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 मेरा यह इरादा नहीं है कि तुम्हें पसंद न होने पर भी तुम्हें मिल का पकड़ा पहनने के लिए बाधित करूं ।

 

     मैंने बस इतना हो कहा था कि मेरे पास देने के लिए केवल मिल का कपड़ा ही है ।

 

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जब तुम हृदय और मन में स्वतंत्र हो जाते हो, तो चीजों को देखने का तुम्हारा तरीका बिलकुल बदल जाता है । लेकिन जब तक यह स्वाधीनता न आ जाये, कोई अनिवार्यता नहीं हैं ।

 

   बुरे विचारों और संदेहों को अपने अंदर प्रवेश करने देने के कारण तुम सुरक्षा से बाहर निकल गये हो ।

 

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    ( ''प्रॉस्पोइरटी '' ' से आवश्यक चीजें पाने वालों के नाम )

 

प्रॉस्पेरिटी से मिली हुई चीजों को बेचना भगवान् का अपमान है और इसके आध्यात्मिक दुष्परिणाम होंगे ।

 

जून, १९७१

 

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यहां हर एक को, उतनी शक्ति, ज्योति और ताकत दी जाती है जितनी वह ले सके, बल्कि उससे भी अधिक । यह तुम्हारा रूपान्तर करने के लिए दी जाती हैं । लेकिन जब तुम इन सबको लेकर अपने निजी प्रयोजन के लिए या तथाकथित मानव प्रेम के लिए काम में लाओं, तो यह बेईमानी है, डकैती है और पहले दूजे का अपराध है ।

 

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तुम्हें हर चीज का उस प्रयोजन के लिए उपयोग करना चाहिये जिसके लिए वह दी गयी है, अन्यथा तुम अपराध करते हो । मैं केवल भौतिक चीजों की बात नहीं कर रही । वे सब आंतरिक चीजें जो मैं तुम्हें सारे समय देती रहती हूं, सारी ताकत, प्रकाश, ऊर्जा और जीवन जो तुम्हारे अंदर सारे समय उंडेल जा रहीं हैं, वे सब भगवान् की सेवा के लिए हैं, तुम्हारा

 

    यह आश्रम का एक विभाग है जहां से आश्रमवासियों को तेल, साबुन, कपड़े, आदि वस्तुएं मिलती हैं । -अनु ०

 

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रूपान्तर करने के लिए हैं । अगर तुम उनका उपयोग किसी और प्रयोजन के लिए करो तो तुम डाकू हो और तुम्हारा अपराध बुरे-से-बुरा है ।

 

 जब में आपको ' के ' के बारे में बताता हूं , तो क्या इसका मतलब यह कि ' उनकी शिकायत कर रहा हूं और क्या करना ठीक है ?

 

 यह तुम्हारे मनोभाव पर निर्भर है । अगर तुम किसी के विरुद्ध बदले की भावना से या अपनी श्रेष्ठता दिखाने के लिए या किसी और व्यक्तिगत हेतु से रिपोर्ट करो तो यह बिलकुल गलत है और तुम्हें यह न करना चाहिये । लेकिन सच्चा तरीका यह है कि तुम एक आईने की तरह होओ, जैसा देखो ठीक वैसा हीं दिखलाओ । अपना निजी रंग न चढ़ाओ और बिलकुल तटस्थ रहो । अगर स्वयं आईने में ही कुछ खराबी होगी, तो मैं उसे ठीक कर सकती हूं । लेकिन तुम्हें निश्चित रूप से यह कोशिश करनी चाहिये कि तुम्हारा आईना चित्र को बिगाड़ नहीं ।

 

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 निश्चय ही किसी की शिकायत करना बुरा है । लेकिन ' क ' जो सोचता है वह ठीक नहीं है । अगर तुम सारे समय ध्यान में रहो, तब और केवल तभी तुम यह कह सकते हो कि मैं कोई बुरी बात नहीं देखता, कोई बुरी बात नहीं सुनता और कोई बुरी बात नहीं कहता । लेकिन जब तुम कार्यक्षेत्र में हो, तो तुम्हें मुझे सूचना देनी ही होगी । निर्णय करने के लिए न बैठ जाओ । आईने की तरह रहो और जो तुम देखते हो उसका ठीक-ठीक चित्र मुझे दो । हो सकता है कि तुम्हारे आईने में दोष हो, लेकिन यह मेरा काम है और मैं उसे देख लुंगी । तुम्हें अपने प्रकाश के अनुसार ठीक चित्र देने का अच्छे -से- अच्छा प्रयास करना चाहिये ।

 

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